मुई मुहब्बत
कलाम लिखने जो बैठा सलाम लिख बैठा,
बयान आँखों का मैं एक जाम लिख बैठा…
वो ख़ास क़िस्सा था मेरी हसीन दुनिया का
जिसे वो सादगी से सब से आम कह बैठा..
ना रास आई उसको मेरी साफ़गोई कभी,
नज़र उठाने को वो कत्ले-आम कह बैठा…
अजी सुनिये, हुज़ूर कह के मुझे बुलाता था
मैं इन्ही लफ़्ज़ों को अपना नाम कह बैठा…
उजाला कम न था बस दोपहर ढलान पर थी
मेरे चराग जलाने को वो अहले शाम कह बैठा …
वो क्या चाहता था कभी कहा नहीं खुल कर
ये ज़िंदगी सारी ही मैं उसके नाम कर बैठा ….