मुखर प्रश्न मौन समाधान
आज बहुत उद्वेलित है मन
हृदय के दर्पण पर किसी ने
पाषाण प्रहार किया है।
शांत झील के जल में हिमखंड सा
वह प्रस्तर,
मन को हलचल से भर गया है।
विदीर्ण हृदय हो गया है चूर–चूर,
हे ईश! स्वार्थी दुनिया कितनी है क्रूर
ना पूछो हर चीज हाथ से रही है छूट
पर विवश है मन सब कुछ सहने को,
अविश्वास की धारा में बहने को,
आत्मचेतना बिल्कुल शून्य हो गई है
आत्मा की आवाज का आज कोई अर्थ नहीं है
अन्तर्मन बार–बार प्रश्न करता है
तुम कहाँ हो?
एक निश्छल हृदय के अश्रु देखकर भी मौन हो,
वो आँसुओं को क्या समझेंगे
मगर तुम तो परम विभूति हो, मेरी पीड़ा को अनुभूत करो।
सच्चाई भी आज शरमाई–सी है
सच और झूठ के बीच खाई सी है
आज ही तो जाना है, आज ही पहचाना है
चेहरा और मन दोनों अलग हैं।
चेहरा भ्रम पैदा करता है।
तेरी दुनिया बड़ी विचित्र है,
यहाँ समर्पित होना भी गुनाह है
पीठ में छुरा भोंकते हैं लोग
किसी के मुख की उदासी शायद उन्हें
खुशी से भर देती है।
मेरे साथ भी यही हुआ है।
आज फिर मैं बिखरी हूँ,
टूट गई हूँ,
यह नीला वितान साक्षी है मेरी पीड़ा का।
तुम्हें भी तो सब कुछ है ज्ञात
तुम्हारी सत्ता तो सर्वत्र है।
शायद, हाँ शायद इसीलिए
मन की आशा जीवित है।
एक तुम तो हो कितने निश्छल और पवित्र
जब–जब भी यह मन घबराता है
तुम ही तो–
जीवन में नवचेतना जगाते हो।
अनजाने में कितनी ही बार
मेरा पथ आलोकित करते हो।
आज भी मुझे तुम्हारा ही संबल है।
तुम्हारा ही आशीष
मुझे शक्ति देगा।
इसीलिए,
हे प्रभु !
मैं बार–बार तुम्हारे समक्ष नत हूँ।
तुम्हें शत–शत नमन करती हूँ।