ओ, मन
नन्हें नन्हें कुछ स्वप्नों का,
रचते हो सुंदर संसार
ललित कल्पना से कर लेते,
छुप–छुप कर उसका श्रृंगार
सुधियों में अंचल को जिसके
देख–देख मुस्काते हो,
क्यूँ नहीं मन कह देते उससे
आकुल अंतर की मनुहार?
जिसकी छवि को ह्रदय–पटलपर
संजों–संजों इठलाते हो,
नयन उसी को देख भला क्यूँ,
ओढ़ लिए लज्जा का भार?
मानस में जिसकी बोली की,
प्रतिपल है मीठी गुँजार,
सम्मुख उसके मूक हुआ मन,
अजब प्रेम का यह व्यवहार!